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इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ऽअर्थ॑मे॒तम्। श॒तं जी॑वन्तु श॒रदः॑ पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥१५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। जी॒वेभ्यः॑। प॒रि॒धिमिति॑ परि॒ऽधिम्। द॒धा॒मि॒। मा। ए॒षा॒म्। नु। गा॒त्। अप॑रः। अर्थ॑म्। ए॒तम् ॥ श॒तम्। जी॒व॒न्तु॒। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। अ॒न्तः। मृ॒त्युम्। द॒ध॒ता॒म्। पर्व॑तेन ॥१५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:35» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं परमेश्वर (एषाम्) इन जीवों के (एतम्) परिश्रम से प्राप्त किये (अर्थम्) द्रव्य को (अपरः) अन्य कोई (मा) नहीं (नु) शीघ्र (गात्) प्राप्त कर लेवे, इस प्रकार (इमम्) इस (जीवेभ्यः) जीवों के लिये (परिधिम्) मर्यादा को (दधामि) व्यवस्थित करता हूँ, इस प्रकार आचरण करते हुए आप लोग (पुरूचीः) बहुत वर्षों के सम्बन्धी (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं भर (जीवन्तु) जीवो (पर्वतेन) ज्ञान वा ब्रह्मचर्यादि से (मृत्युम्) मृत्यु को (अन्तः) मध्य में (दधताम्) दबाओ अर्थात् दूर करो ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो लोग, परमेश्वर ने नियत किया कि धर्म का आचरण करना और अधर्म का आचरण छोड़ना चाहिये, इस मर्यादा को उल्लङ्घन नहीं करते, अन्याय से दूसरे के पदार्थों को नहीं लेते, वे नीरोग होकर सौ वर्ष तक जी सकते हैं और ईश्वराज्ञाविरोधी नहीं। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर धर्म का आचरण करते हैं, उनको मृत्यु मध्य में नहीं दबाता ॥१५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इमम्) प्रत्यक्षम् (जीवेभ्यः) प्राणधारकेभ्यः स्थावरशरीरेभ्यश्च (परिधिम्) मर्यादाम् (दधामि) व्यवस्थापयामि (मा) (एषाम्) जीवानाम् (नु) सद्यः (गात्) प्राप्नुयात् (अपरः) अन्यः (अर्थम्) द्रव्यम् (एतम्) प्राप्तम् (शतम्) (जीवन्तु) (शरदः) (पुरूचीः) या पुरूणि बहूनि वर्षाण्यञ्चन्ति ताः (अन्तः) मध्ये (मृत्युम्) (दधताम्) धारयन्तु (पर्वतेन) ज्ञानेन ब्रह्मचर्यादिना वा ॥१५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहं परमेश्वर एषां जीवानामेतमर्थमपरो मा नु गादितीमं जीवेभ्यः परिधिं दधाम्येवमाचरन्तो भवन्तः पुरूचीः शतं शरदो जीवन्तु पर्वतेन मृत्युमन्तर्दधताम् ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! ये परमेश्वरेण व्यवस्थापितां धर्माचरणं कार्य्यमधर्माचरणं त्याज्यमिति मर्यादां नोल्लङ्घन्तेऽन्यायेन परपदार्थान्न स्वीकुर्वन्ति, तेऽरोगाः सन्तश्शतं वर्षाणि जीवितुं शक्नुवन्ति, नेतर ईश्वराज्ञाभङ्क्तारः। ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण विद्या अधीत्य धर्ममाचरन्ति तान् मृत्युर्मध्ये नाप्नोतीति ॥१५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे लोक परमेश्वराचे नियम पाळून धर्माचे आचरण व अधर्माचा त्याग, या मर्यादांचे उल्लंघन करत नाहीत. अन्यायाने दुसऱ्यांचे पदार्थ घेत नाहीत ते निरोगी बनून शंभर वर्षांपर्यंत जगू शकतात. ते ईश्वराज्ञेविरुद्ध नसतात. जे पूर्ण ब्रह्मचर्याचे पालन करून विद्या शिकतात व धर्माचरण करतात त्यांना मृत्यू अकाली येत नाही.